उत्तराखंड के ग्लेशियरों, खासकर गोमुख ग्लेशियर में इस बार बर्फबारी ने 16 साल का रिकार्ड तोड़ दिया है। गोमुख में लगभग 15 फीट बर्फ पड़ी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अन्य ग्लेशियरों में भी दस फीट से ज्यादा हिमपात की संभावना है। सन् 2002 में गोमुख ग्लेशियर में दस फीट से ज्यादा बर्फबारी हुई थी। वैज्ञानिकों का कहना है कि रिकार्ड बर्फबारी से पूरे उत्तर भारत को फायदा होगा। इस बार सिंचाई, पेयजल व बांधों को भरपूर पानी मिलेगा। ग्लेशियरों का संकट हुआ कम : ग्लोबल वार्मिंग का खामियाजा हिमालय के तमाम ग्लेशियर भी भुगत रहे थे। पिछले कुछ सालों में कम बर्फबारी से जहां ग्लेशियर में ‘स्नो लेयर’ कम होती जा रही थी, वहीं प्रदूषण के चलते ग्लेशियर ‘ब्लैक कार्बन’ से भी पिघल रहे थे। लेकिन, जनवरी में हिमपात ने पिछली वर्षों में आए संकट को दूर कर दिया है।
वाडिया की टीम जाएगी
वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ ग्लेशियर वैज्ञानिक डॉ. डीपी डोभाल ने बताया कि गोमुख ग्लेशियर में इस बार 15 फीट तक बर्फ पड़ी है। ये अभी सूचनाओं के आधार पर मिले आंकड़े हैं। विस्तृत अध्ययन के लिए एक टीम जाड़ों के बाद ग्लेशियरों के दौरे पर जाएगी। औसतन हर साल जनवरी में पांच से सात फीट तक हिमपात होता है। इस बार बहुत अच्छा हिमपात हुआ है। जिसके दूरगामी फायदे होंगे।
ग्लेशियरों के रिचार्ज होने के फायदे
उत्तरी भारत की लाइफ लाइन गंगा और यमुना है। इन दोनों नदियों में लगभग दस सहायक नदियां मिलती हैं। भागीरथी, यमुना, भिलंगना, अलकनंदा, पिंडर, राम गंगा पूर्वी आदि सभी ग्लेशियर से निकली नदियां हैं। अच्छा हिमपात होने से गर्मियों में इन नदियों में औसत से ज्यादा जलस्तर रह सकता है। जिसका फायदा, सिंचाई नहरों, बांध, जलवायु और पेयजल सप्लाई को होगा। इसके साथ ही महान हिमालय की जैव विविधता के लिये भी ये दूरगामी फायदेमंद होगा।
उत्तराखंड : वेतन-भत्ते, पेंशन- कर्ज चुकाने पर ही खर्च हो रहा 85% बजट
नेताओं, अफसरों और कर्मचारियों के वेतन-भत्ते, पेंशन और राज्य का कर्ज चुकाने में ही सालाना बजट का 85 फीसदी हिस्सा खर्च हो रहा है। जबकि इसका 15 फीसदी हिस्सा ही उत्तराखंड के विकास कार्यों के लिए बच रहा है। अगर ऐसे ही हालात रहे तो आने वाले समय में सरकार के सामने चुनौतियां और बढ़ेंगी। राज्य का इस साल कुल बजट 45 हजार करोड़ रुपये के करीब था। इसमें से 85 फीसदी धनराशि सभी तरह के वेतन-भत्ते और पेंशन और पिछले कुछ साल में लिए गए कर्ज का ब्याज चुकाने में खर्च हो रहे हैं। इसके बाद राज्य के बजट का 15 फीसदी हिस्सा ही विकास कार्य, शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज कल्याण जैसी योजनाओं पर खर्च हो रहा है। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि राज्य गठन के बाद से ही वित्तीय प्रबंधन पर ध्यान नहीं दिया गया, जिससे राज्य के सामने आर्थिक चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं।
अगर मांगें पूरी हुईं तो सालाना 400 करोड़ का बोझ पड़ेगा : सरकार ने कर्मचारियों को अभी जो भत्ते दिए हैं, उससे 100 करोड़ रुपये सालाना अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है। यदि सभी मांगें मान ली जाएं तो सालाना 400 करोड़ का बोझ पड़ेगा। इधर, अपर मुख्य सचिव ओम प्रकाश ने कहा कि सभी कर्मचारियों की समस्याओं पर सरकार गंभीर है। मगर, एक पहलू यह भी है कि वेतन-भत्तों पर काफी धन खर्च हो रहा है। उन्होंने कहा कि कर्मचारियों की मांगों के अनुरूप भत्ते दिए जाते हैं तो आर्थिक बोझ और बढ़ेगा। इसकी भरपाई या तो नए टैक्स से होगी या फिर लोन लेना पड़ सकता है। ऐसे में आम आदमी को ज्यादा परेशानी झेलनी पड़ेगी।
छोटे राज्य पर आर्थिक बोझ 1999 में यूपी की कुल आबादी 18 करोड़ थी, जबकि वहां कुल नौ लाख 25 हजार कर्मचारी थे। उत्तराखंड अलग राज्य बना तो यहां महज 89 लाख की आबादी पर 2 लाख 25 हजार कर्मचारी-पेंशनरों में बंट गए। यूपी के समय नॉन प्लान का बजट 35 प्रतिशत था, जो बढ़कर 85% पहुंच गया है।
नेताओं और अफसरों पर लुटाया जा रहा पैसा: वेतन-भत्तों पर कर्मचारी असंतोष की बड़ी वजह विधायकों-मंत्रियों के वेतन-भत्तों में बेतहाशा वृद्धि भी है। त्रिवेंद्र सरकार ने गैरसैंण सत्र में विधायकों का वेतन कई गुना बढ़ा दिया था। राज्य के एक कैबिनेट मंत्री को हर महीने साढ़े तीन लाख के करीब वेतन मिलता है। जबकि अन्य भत्ते भी लाखों में दिए जा रहे हैं। इसी तरह विधायक, राज्य मंत्री और अफसरों की सुविधाओं पर भी पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। कर्मचारियों का तर्क है कि जब नेताओं और अफसरों के लिए पैसे की कमी नहीं है तो फिर उन्हें क्यों केंद्र के समान भत्ते नहीं दिए जा रहे।