Bagwal mela/बग्वाल मेला Uttarakhand culture for UKPCS
उत्तराखंड के चंपावत जिले के देवीधुरा में स्थित वाराही देवी मंदिरअपने साथ एक खास परंपरा समेटे हुए है। यहां हर साल रक्षाबंधन के दिन देवी मां को प्रसन्न करने के लिए स्थानीय लोग एक दूसरे पर फूल और फल फेंकते हैं। बता दें कि पत्थर फेंकने का सिलसिला खून बहने तक जारी रहता है। मान्यता है कि ऐसा करके लोग देवी के सामने खुद का बलिदान करके उन्हें प्रसन्न करते हैं। हालांकि उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश के बाद 2013 से इस प्रथा में बदलाव करते हुए पत्थर की जगह फल और फूलों का इस्तेमाल होने लगा है।
माँ वाराही देवी का मंदिर उत्तराखण्ड राज्य के लोहाघाट नगर से 60 किलोमीटर दूर स्थित देवीधुरा कस्बे में स्थित है. देवीधुरा चंपावत जिले में स्थित है. माँ वाराही का मंदिर 52 पीठों में से एक माना जाता है. देवीधुरा स्थित शक्तिपीठ माँ वाराही का मंदिर पर्वत श्रंखलाओं के बीच स्थित है. मंदिर के चारों ओर देवदार के उँचे-उँचे पेड़ मंदिर की शोभा में चार चाँद लगाते हैं. माँ वाराही का मंदिर अपनी नेसर्गिक सुंदरता और प्राचीन मान्यताओ के लिए प्रसिद्ध है. माँ वाराही का यह मंदिर समुद्र तल से लगभग 1850 मीटर की उँचाई पर स्थित है. मां वाराही धाम, रक्षाबंधन के दिन (श्रावणी पूर्णिमा) होने वाले पत्थरमार युद्ध के लिए प्रसिद्ध है जिसे स्थानीय भाषा में “बग्वाल” कहा जाता है.
माँ वाराही देवी मंदिर का इतिहास बहुत ही पुराना और पौराणिक है. इतिहासकारों के अनुसार चन्द राजाओं के शासन काल में इस सिद्ध पीठ स्थापना की गयी और चंपा देवी और लाल जीभ वाली महाकाली की मूर्ति स्थापित की गयी. सिद्ध पीठ के आसपास बसे “महर” और “फर्त्यालो” द्वारा बारी-बारी से हर साल नर बलि दी जाती थी. “महर” और”फर्त्याल” एक तरह की लोकल जाति हैं जो यहाँ के रहने वाले लोग अपने नाम में जोड़ते हैं. इतिहासकारों के अनुसार रुहेलों के आक्रमण के समय कत्यूरी राजाओं द्वारा वाराही की मूर्ति को घने जंगल के मध्य एक गुफा में छुपाकर स्थापित कर दिया था और बाद में यहीं पर देवी की पूजा अर्चना करना शुरू कर दिया था.
माँ वाराही देवी के मुख्य मंदिर में तांबे की पेटिका में मां वाराही देवी की मूर्ति है. माँ वाराही देवी के बारे में यह मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति मूर्ति के दर्शन खुली आँखों से नहीं कर सकता है क्युकी मूर्ति के तेज से उसकी आँखों की रोशनी चली जाती है. इसी कारण “देवी की मूर्ति” को ताम्रपेटिका में रखी जाती है.
पौराणिक कथाओं के अनुसार माँ काली के गणों को प्रसन्न करने के लिये नरबलि की प्रथा थी लेकिन जब एक वृद्धा के इकलौते पोते की बारी आई तो उसने उसे बचाने के लिये देवी से प्रार्थना की. देवी उसकी आराधना से खुश हुई और उसके पोते को जीवनदान दिया लेकिन साथ ही शर्त रखी कि एक व्यक्ति के बराबर ख़ून उसे चढ़ाया जाए. तभी से पत्थरमार (पाषाण) युद्ध में खून बहाकर देवी को प्रसन्न किया जाता है. इस पत्थरमार युद्ध को लोकल भाषा में “बग्वाल”कहा जाता है.
बग्वाल मेला क्या है? Devidhura Bagwal Mela in 2018
बग्वाल युद्ध चार राजपूत खामों (वर्गों) से जुड़ी है जो हर साल अपने अपने खामों के रण वीरो के साथ इस पत्थर के खेल में भाग लेते हैं. इन राजपूत खामों के नाम हैं गहरवाल, लमगड़िया, वलकिया और चम्याल. पूर्णमासी के दिन पाषाण युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व श्रावण शुक्ल एकादशी के दिन वालिक, लमगडि़या, चम्याल और गहड़वाल खामो द्वारा सामूहिक पूजा-अर्चना, मंगलाचरण स्वास्तिवान, सिंहासन डोला पूजन और सांगी पूज किया जाता है. पूर्णमासी के दिन चारों खामों के प्रधान बाराही देवी के मंदिर में एकत्र होते हैं, जहां पुजारी सामूहिक पूजा करवाते हैं. पूजा के बाद पाषाण युद्ध में भाग लेने वाले चारों खामों के योद्धा परम्परागत वेश-भूषा में सुसज्जित होकर दुर्वाचौड़ में आते हैं और हाथ में बांस की फर्रा (ढाल) लेकर मैदान में आते हैं.ये जहाँ ये चारों खाम दो ग्रूप में बट जाते हैं चम्याल और गहरवाल खाम के राजपूत पूर्वी छोर से और लमगड़िया और वालिक पश्चिमी छोर से मैदान में लड़ते हैं.
देवी की आराधना के लिए लोग बरसाते हैं पत्थर- चारों खामों के योद्धा ज़ोर ज़ोर से ‘जय मां बाराही’ के जयकारे लगाते हैं और बग्वाल के लिए तैयार हो जाते हैं. बाराही मंदिर के प्रधान पुजारी सबको आशीर्वाद देते हैं. पुजारी शुभ समयानुसार (दिन के समय) बग्वाल शुरू करने के लिए शंखनाद करते हैं. पुजारी द्वारा शंखनाद करते ही बग्वाल शुरू हो जाती है. आमतौर पर लमगड़िया खाम के व्यक्ति सबसे पहले पत्थर फेंक कर बग्वाल शुरू करते हैं. बग्वाल शुरू होते ही दोनो तरफ से पत्थर हवा में ऐसे उड़ते हैं जैसे की पंछी उड़ रहे हों. चोट से बचने के लिए योद्धा लकड़ी की बनी हुई बांस की ढाल (फर्रा) का उपयोग करते हैं. कुछ देर बाद पुजारी युद्ध समाप्ति के लिए फिर से शंखनाद करते हैं और इस तरह दोनो तरफ से योद्धा युद्ध कर देते हैं और एक दूसरे को बधाई देते हैं लगे लगते हैं.
बार बार राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनो के आह्वान और सरकार द्वारा रोक लगा देने से अब बग्वाल पत्थरों से नही फलों से खेली जाती है. लेकिन पिछले कुछ सालों से मेले का मुख्य आकर्षण फल और फूलों से खेली जाने वाली बग्वाल बन गयी है.
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