critical analysis of van panchayat of uttarakhand

मुख्य मंत्री वन पंचायत सुदृढीकरण योजना
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उत्‍तराखण्‍ड के पर्वतीय जनपदों में वन पंचायतों के गठन का कार्य वर्ष 1932 से प्रारम्‍भ हो गया था राज्‍य के 11 जनपदों में वन पंचायत अधिनियम लागू है राज्‍य के 11 पर्वतीय जनपदों में राजस्‍व ग्रामों की कुल संख्‍या 13,729 है। इसमें से अभी तक 12,085 वन पंचायतों का गठन हो गया है। जिनका क्षेत्रफल लगभग 5.00 लाख हैक्‍टेयर है ,द्वितीय चरण में पूर्व निर्मित वन पंचायतों के क्षेत्रफल में वृद्वि किया जाना है।

चारा विकास, चारा वृक्ष विकास, औषधीय पादपों का विकास, मृद्रा एवं जल संरक्षण में वन पंचायतों का अत्‍यधिक महत्‍व है। प्रत्‍येक राजस्‍व ग्राम का अपना वन की परिकल्‍पना को साकार करने के लिए सभी 13,729 ग्रामों में वनन पंचायतों के गठन की आवश्‍यकता के अनुसार प्रत्‍येक वन पंचायतों की अलग-अलग कार्य योजना तैयार की जानी चाहिए। राज्‍य के पशुचारा के अभाव के न्‍यूनीकरण में वन पंचायतें सबसे अधिक सहायक हो सकती है। चारा उत्‍पादन के लिए अतिरिक्‍त कृषि भूमि का उपयोग करना संभव नही है। वर्तमान पशुचारा अभाव(लगभग 95 लाख मी0टन हरा चारा) के सम्‍बन्‍ध में लगभग 4.00 लाख हेक्‍टेयर अतिरिक्‍त भूमि की आवश्‍यकता होगी। यह भूमि वन पंचायतों में उपलब्‍ध है जिसे चरणबद्व रूप से सिल्‍वी ग्रासलैण्‍ड में परिवर्तित किया जायेगा।

Improvement in van panchayat
वन पंचायतों की व्यवस्था वाले देश के एकमात्र राज्य उत्तराखंड में वन पंचायत नियमावली की जटिलताओं को दूर करने के लिए सरकार इसमें संशोधन करेगी। इसके तहत वन पंचायतों के गठन के लिए उपजिलाधिकारी की बजाए किसी सक्षम अधिकारी को चुनाव अधिकारी बनाया जाएगा। यही नहीं, वन पंचायतों को क्रियाशील बनाने के मद्देनजर इनकी संख्या में कटौती की जा सकती है। वर्तमान में वन पंचायतों की संख्या 12168 है। वन पंचायतों में सरपंच के पदों पर 50 फीसद महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के साथ ही सरकार अन्य कई कदम भी उठाने जा रही है। यही नहीं, वन पंचायतों को मनरेगा के तहत 20 फीसद बजट मुहैया कराने पर भी सरकार जल्द निर्णय लेगी।

डॉ.रावत ने कहा कि सरकार का फोकस वन पंचायतों के सशक्तीकरण पर है। ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि सभी वन पंचायतें क्रियाशील हों और वे वनों के संरक्षण-संव‌र्द्धन के साथ ही ग्रामीणों को रोजगार देने में भी सक्षम हो सकें।

डॉ.रावत ने कहा कि वन पंचायतों के सरपंच पदों पर महिलाओं की 50 फीसद भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए रोस्टर बनाया जाएगा। वन पंचायतों को मान्यता तभी दी जाएगी, जब सरपंच पदों पर 50 फीसद महिलाएं काबिज हों। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि वन पंचायतों के क्षेत्रफल का निर्धारण भी किया जाएगा। ऐसे में पुनर्गठन से इनकी संख्या कम हो सकती है।

वित्त मंत्री प्रकाश पंत ने कहा कि नियमावली में वन पंचायतों को स्वायत्तता दी गई है। उसे अपने संसाधनों पर तो ध्यान देना ही होगा। साथ ही सरकार भी इसमें पूर्ण सहयोग करेगी। मनरेगा के तहत बजट आवंटित करने भी सरकार हरसंभव प्रयास करेगी।

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नाप भूमि में चीड़ कटान पर छूट

राज्य में चीड़ के वनों के फैलाव को देखते हुए सरकार भी इन्हें नियंत्रित करने पर जोर दे रही है। वन मंत्री डॉ.रावत ने बताया कि इसके लिए नाप भूमि में चीड़ कटान की छूट देने पर विचार चल रहा है। इसके साथ ही मिश्रित वनों को विकसित करने पर फोकस किया जाएगा।

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ये भी उठाए जाएंगे कदम

-25 हेक्टयेर से ज्यादा क्षेत्रफल वाली वन पंचायतों को प्रति वर्ष मिलेगी कम से कम दो लाख की राशि

-सभी वन पंचायतों को कार्य मिले, इसके लिए एक ही योजना से दिया जाएगा पैसा

-पुनर्गठन में भूमि संरक्षण क्षेत्रों का 476 लाख हेक्टेयर भूमि भी देंगे वन पंचायतों को

-वन पंचायतों में सहायक की नियुक्ति का होगा प्रयास

-महिला पौधालयों के लिए की जाएगी दो करोड़ रुपये की व्यवस्था

-2011 में आपदा मद में स्वीकृत 11 करोड़ की राशि से वंचित वन पंचायतों को क्षतिपूर्ति का भुगतान करेगी सरकार

-पिरुल एकत्रीकरण पर ग्रामीणों को दो रुपये प्रति किलो दी जाएगी सब्सिडी

-वन पंचायतों के लीसा टिपान से संबंधित भुगतान किया जाएगा जल्द

-अग्नि सुरक्षा में वन पंचायतों का लिया जाएगा सहयोग

-वन विभाग में सृजित किए जाएंगे 25 पशु चिकित्सकों के पद

-बंदरों की समस्या के निदान को मिलकर उठाए जाएंगे कदम

critical analysis of van panchayat

2001 में किये गए इस संशोधन के जरिए वन पंचायतों की स्वायत्तता समाप्त कर उन्हें वन विभाग के नियंत्रण में दे दिया गया। आज उनकी भूमिका बिना पैसों के चौकीदार सी होकर रह गई है। बिना वन विभाग की अनुमति व विभाग द्वारा जारी अनुसूचित दरों के वन पंचायत हकधारक को एक पेड़ तक नहीं दे सकती है। यहाँ मौजूद 12,089 तथाकथित वन पंचायतें 5,44964 हेक्टेयर वन क्षेत्र का प्रबन्धन कर रही हैं।

उत्तराखण्ड में मौजूद वन पंचायतें, जनआधारित वन प्रबन्धन की सस्ती, लोकप्रिय एवं विश्व की अनूठी व्यवस्था थी, अब नहीं रहीं। आज उनकी वैधानिक स्थिति ग्राम वन की है। 2001 में ही वन अधिनियम में संशोधन कर आरक्षित वन से किसी भी प्रकार के वन उपज के विदोहन को गैर-जमानती जुर्म की श्रेणी में डाल दिया गया। अभयारण्य, नेशनल पार्क व बायोस्फियर रिजर्व के नाम पर संरक्षित क्षेत्रों के विस्तार का क्रम जारी है।

2012 में बने नंधौर वाइल्ड लाइफ सेंचुरी व पवलगढ़ कंजरवेशन रिजर्व इसी कड़ी में शामिल हैं। 7 वन्य जीव विहार 6 राष्ट्रीय उद्यान तथा 2 संरक्षण आरक्षित के नाम पर अब तक 7705.99 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र संरक्षित क्षेत्र के दायरे में आ चुका है, जो राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 15 प्रतिशत तथा कुल वन क्षेत्र का 23 प्रतिशत है। इन संरक्षित क्षेत्रों में ग्रामीणों के सारे परम्परागत वनाधिकार प्रतिबन्धित कर दिये गए हैं। अब इन संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से लगे क्षेत्र को इको सेंसटिव जोन बनाया जा रहा है।

इको टूरिज्म के नाम पर जंगलों में भारी संख्या में पर्यटकों की आवाजाही से जंगली जानवरों के वासस्थल प्रभावित हो रहे हैं। वन संरक्षण अधिनियम 1980 ने पहले ही पर्वतीय क्षेत्र में ढाँचागत विकास को काफी हद तक प्रभावित किया है। वृक्ष संरक्षण अधिनियम 1976 अपने ही खेत में स्वयं उगाए गए पेड़ को काटने से रोकता है।

इन वन कानूनों के चलते पर्वतीय क्षेत्र में न केवल विकास कार्य बाधित हुए हैं, बल्कि उनकी आजीविका के मुख्य आधार कृषि, पशुपालन एवं दस्तकारी पर भी हमला हुआ है। जंगली सूअर, शाही, बन्दर, लंगूर आदि जंगली जानवरों द्वारा फसलों को भारी क्षति पहुँचाई जा रही है। तेंदुए आये दिन मवेशियों को अपना शिकार बना रहे हैं।

वन्य जीवों के हमलों से हर साल राज्य में औसतन 26 लोगों की मौत तथा 60 लोग घायल हो रहे हैं। वन विभाग में दर्ज आँकड़ों के अनुसार मात्र 45.59 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले बिनसर अभयारण्य में प्रतिवर्ष 140 मवेशी तेंदुओं का शिकार बन रहे हैं, जबकि वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा है। परिस्थितियाँ ग्रामीणों को खेती व पशुपालन से विमुख कर रही हैं। कभी खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर गाँवों में हर साल बंजर भूमि का विस्तार हो रहा है। पलायन बढ़ रहा है।

जंगली जानवरों के आतंक से निजात दिलाने की कोई कारगर योजना नहीं बन पाई है। बन्दरों की नसबंदी तथा जंगली सूअरों को नियंत्रित करने की वन विभाग के आश्वासन हवाई साबित हुए हैं। यही नहीं राज्य में वनाधिकार कानून को लागू करने में भी अब तक की सरकारें नाकाम रहीं हैं। वन कानूनों की आड़ में वन विभाग द्वारा ग्रामीणों के उत्पीड़न की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। दूसरी तरफ संरक्षित क्षेत्रों के भीतर बड़े पैमाने पर गैर कानूनी तरीके से जमीनों की खरीद-फरोख्त भी जारी है।

अकेले बिनसर अभयारण्य में 10 हेक्टेयर से अधिक जमीन की खरीद-फरोख्त अवैध रूप से हुई है। ग्रामीणों को आवासीय भवन बनाने के लिये इमारती लकड़ी हेतु बिना सुविधा शुल्क दिये सूखा पेड़ तक नहीं मिल पा रहा है। ब्रिटिश काल से मिलने वाली इमारती लकड़ी के कोटे में वन विभाग पहले ही 60 प्रतिशत की कटौती कर चुका है। चिपको आन्दोलन की शुरुआत करने वाले रैणी, लाता गाँव के लोग 25 साल बाद झपटो-झीनों का नारा देने को विवश हुए हैं।

अब मनुष्य को केन्द्र में रखकर वन कानूनों की पुनरसमीक्षा करने का वक्त आ चुका है। यदि ग्रामीण जन-जीवन को बचाना है तो यह तय करना होगा कि राज्य के अधीन अधिकतम कितना वन क्षेत्र होगा। जंगल की धारण क्षमता का आकलन कर उससे अधिक जंगली जानवर पर उन्हें हटाने अथवा संख्या नियंत्रित करने हेतु कारगर कदम उठाने होंगे।

वन प्रबन्धन में जन सहभागिता सुनिश्चित करानी होगी। इस सहभागिता को केवल वन संरक्षण तक सीमित न रखकर वन उपज के उपयोग एवं वनों से होने वाले सभी लाभों तक देखना होगा। उत्तराखण्ड के विस्तृत वन क्षेत्र के एवज में ग्रीन बोनस की माँग पिछले एक दशक में सभी सरकारों द्वारा प्रमुखता से उठाया है, लेकिन इसमें वनवासियों का हिस्सा कहाँ है इसे तय किये जाने की जरूरत है।