Section 377 verdict: Supreme Court decriminalises homosexuality

Section 377 verdict: Supreme Court decriminalises homosexuality

Diluting Section 377 by unanimous verdict, the Supreme Court on Thursday said LGBTQ community has the same fundamental rights as other citizens. This marks the end of a long legal battle supporting homosexuality.
Section 377 refers to ‘unnatural offences’. It states that whosoever voluntarily has carnal intercourse against the order of nature with any man, woman or animal, shall be punished with imprisonment for life, or with imprisonment for a term which may extend to 10 years, and shall also be liable to pay a fine.
At least 32 individuals had filed petitions to scrap Section 377 of Indian Penal Code, including celebrities, IITians and LGBT activists. A five-judge Constitution Bench headed by Chief Justice Dipak Misra had earlier reserved its verdict on July 17 after hearing several petitioners, including gay rights activists.
While reserving judgment, the bench made it clear that no one should be under the impression that it will scrap Section 377 altogether as it will lead to anarchy and rise in crimes relating to forced unnatural acts. The Centre initially had sought adjournment for filing its response to the petitions, but later left to the wisdom of the court the issue of legality of the penal provision with regard to aspects of criminalising consensual unnatural sex between two consenting adults.
The Centre had said that the other aspects of the penal provision dealing with minors and animals should be allowed to remain in the statute book.
The Supreme Court had in 2013 restored criminality of the sexual relationship between persons of the same sex, after the Delhi High Court’ had decriminalised it in 2009.
The five-judge bench on July 10 had made it clear that it was not going into the curative petitions and would adjudicate on fresh writ petitions in the matter. The writ petitions were opposed by the Apostolic Alliance of Churches, Utkal Christian Association and some other NGOs and individuals, including Suresh Kumar Kaushal, who had challenged the 2009 verdict of the high court in the apex court.
The issue of Section 377 raised by an NGO Naaz Foundation, which had in 2001 approached the Delhi High Court, seeking decriminalised sex between consenting adults of the same gender by holding the penal provision “illegal”.
देश में दो बालिगों के बीच समलैंगिक संबंध अब अपराध नहीं हैं। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने एक मत से सुनाए गए फैसले में दो बालिगों के बीच सहमति से बनाए गए समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली धारा 377 के प्रावधान को खत्म कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को मनमाना करार देते हुए व्यक्तिगत चॉइस को सम्मान देने की बात कही। सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह दिसंबर 2013 को सुनाए गए अपने ही फैसले को पलट दिया है। सीजेआई दीपक मिश्रा, के साथ जस्टिस आरएफ नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संवैधानिक पीठ ने 10 जुलाई को मामले की सुनवाई शुरु की थी और 17 जुलाई को फैसला सुरक्षित रख लिया था। 

फैसला सुनाते हुए अपने फैसले में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने कहा कि जजों ने कहा कि संवैधानिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में परिवर्तन जरूरी है। जीवन का अधिकार मानवीय अधिकार है। इस अधिकार के बिना बाकी अधिकार औचित्यहीन हैं। कोर्ट ने अपने फैसले में सेक्शुअल ओरिएंटेशन बायलॉजिकल बताया है। कोर्ट का कहना है कि इस पर किसी भी तरह की रोक संवैधानिक अधिकार का हनन है। किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह एलजीबीटी कम्युनिटी के लोगों को भी उतने ही अधिकार हैं। एक-दूसरे के अधिकारों को सम्मान करना चाहिए। जस्टिस मल्होत्रा ने अपने फैसले में कहा, ‘वर्षों तक समान अधिकार से वंचित किए जाने के लिए समाज को LGBT समुदाय के सदस्यों और उनके परिजनों से माफी मांगनी चाहिए।’ 
क्या है धारा 377 
भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 377 के मुताबिक कोई किसी पुरुष, स्त्री या पशुओं से प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध संबंध बनाता है तो यह अपराध होगा। इस अपराध के लिए उसे उम्रकैद या 10 साल तक की कैद के साथ आर्थिक दंड का भागी होना पड़ेगा। सीधे शब्दों में कहें तो धारा-377 के मुताबिक अगर दो अडल्ट आपसी सहमति से भी समलैंगिक संबंध बनाते हैं तो वह अपराध होगा। 

सुनवाई के दौरान क्या रहा था सुप्रीम कोर्ट का रुख 
– सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि अगर कोई कानून मौलिक अधिकारों के खिलाफ है तो हम इस बात का इंतजार नहीं कर सकते कि बहुमत की सरकार इसे रद्द करे। 

– चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली संवैधानिक बेंच ने कहा कि वह साफ करना चाहते हैं कि वह धारा-377 को पूरी तरह से खारिज नहीं करने जा रहे हैं बल्कि वह धारा-377 के उस प्रावधान को देख रहे हैं जिसके तहत प्रावधान है कि दो बालिग अगर समलैंगिक संबंध बनाते हैं तो वह अपराध है या नहीं। 

समलैंगिकता को अपराध से बाहर रखने के पक्ष में दलील 
– याचिकाकर्ता के वकील मुकुल रोहतगी ने कहा था कि एलजीबीटीक्यू (लेज्बियन, गे, बाय सेक्शुअल्स, ट्रांसजेंडर्स, क्वीर) के मौलिक अधिकार प्रोटेक्टेड होना चाहिए। जीवन और स्वच्छंदता का अधिकार नहीं लिया जा सकता। 

– LGBT समुदाय को मौजूदा धारा-377 की वजह से सामाजिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ रहा है। उनका सेक्शुअल रुझान अलग है और ये सवाल किसी की व्यक्तिगत इच्छा का नहीं बल्कि रुझान का है जो पैदा होने के साथ हुआ है। 

– अनुच्छेद-21 के तहत मौलिक अधिकार का सुप्रीम कोर्ट संरक्षित करे। 2013 के फैसले के कारण समाज का एक वर्ग प्रभावित हुआ है और समाज पर इसका व्यापक असर हुआ है। समाज को हम दोषी नहीं मान रहे लेकिन समाज के सिद्धांत को संवैधानिक नैतिकता की कसौटी पर परखना होगा। 

– सेक्शुअल नैतिकता को गलत तरीके से परिभाषित किया जा रहा है। जेंडर को सेक्शुअल ओरिएंटेशन के साथ मिक्स नहीं किया जा सकता। एलजीबीटी समुदाय के लोग समाज के दूसरे तबके की तरह ही हैं। सिर्फ उनका सेक्शुअल रुझान अलग है। 

– ये सब पैदाइशी है। ये मामला जीन से संबंधित है और ये सब प्राकृतिक है, जिसने ऐसा रुझान दिया है। इसका लिंग से कोई लेना देना नहीं है। सुप्रीम कोर्ट को सिर्फ सेक्शुअल ओरिएंटेशन को डील करना चाहिए जो पैदाइशी है। सेक्शुअल ओरिएंटेशन बेडरूम से संबंधित है। 
 
Section 377 verdict: Supreme Court decriminalises homosexuality