भारत की जीवन रेखा कहलाने वाली नदी गंगा के अस्तित्व पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। जी नहीं, इस खतरे का संबंध नमामि गंगे और गंगा ऐक्शन प्लान जैसी सरकारी योजनाओं की विफलता से नहीं है। यह मैदानों के प्रदूषण से नहीं, ठेठ गंगा की जड़ गोमुख ग्लेशियर से आ रहा है और अकेली गंगा नहीं, दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशिया की बहुतेरी नदियां इस खतरे की जद में हैं। ‘हिंदूकुश-हिमालय असेसमेंट’ नामक अध्ययन में बताया गया है कि इन दोनों पर्वतमालाओं से निकलने वाले ग्लेशियर (हिमनद) लगातार पिघल रहे हैं और इनमें से दो-तिहाई इस सदी के अंत तक खत्म हो सकते हैं। 210 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार यह रिपोर्ट काठमांडू में स्थित ‘इंटरनेशनल सेंटर फार इंटीग्रेटेड माउंटेन डिवेलपमेंट’ द्वारा जारी की गई है।
स्टडी के अनुसार इस सदी के अंत तक दुनिया का तापमान पेरिस जलवायु समझौते के मुताबिक 1.5 डिग्री सेल्सियस ही बढ़ने दिया जाए, तो भी इलाके के एक-तिहाई ग्लेशियर नहीं बचेंगे और बढ़ोतरी अगर 2 डिग्री सेल्सियस होती है, जिसकी आशंका ज्यादा है, तो दो-तिहाई ग्लेशियर नहीं रहेंगे। दरअसल पूरी दुनिया में हिमनदों के पिघलने का सिलसिला 1970 से ही तेज हो चुका है। इसके एक सीमा पार करते ही नदियों की दिशा व बहाव में बदलाव आ सकता है। बर्फ पिघलने से यांगत्सी, मीकांग, ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंधु के प्रवाह पर फर्क पड़ेगा और इनमें से कुछ बरसाती नदी बनकर रह जाएंगी। इन नदियों पर बड़ी संख्या में किसान निर्भर करते हैं। 25 करोड़ पर्वतीय और 165 करोड़ मैदानी लोगों का जीवन इन पर टिका है।
नदी के प्रवाह में बदलाव से फसलों की पैदावार के साथ ही बिजली उत्पादन पर भी फर्क पड़ेगा। वैकल्पिक नजरिये से देखें तो ब्रिटिश वैज्ञानिक वूटर ब्यूटार्ट इस रिपोर्ट के निष्कर्षों से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखते। उनका कहना है कि इस मामले में अभी और ज्यादा रिसर्च की जरूरत है क्योंकि ग्लेशियर पिघलने के बाद भी नदियों को और जगहों से पानी मिल जाता है। जो भी हो, ग्लेशियर खत्म होने की बात को अब गंभीरता से लेना हमारी मजबूरी है। ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए चला विश्वव्यापी अभियान भी पिछले कुछ समय से ठिठका हुआ सा लग रहा है। सारे देश एक-दूसरे को नसीहत ही देते हैं। खुद अपने यहां कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाते, क्योंकि इससे उनकी अर्थव्यवस्था पर उलटा असर पड़ सकता है।
उद्योग-धंधे लगाने में पर्यावरणीय शर्तों की अनदेखी अभी हमारे यहां ही आम बात हो चली है, जबकि हिमालय का संकट सबसे ज्यादा नुकसान हमें ही पहुंचाने वाला है। एक तो हमारी बहुत बड़ी आबादी हिमालय पर निर्भर है, दूसरे गंगा के बिना भारतीय सभ्यता की कल्पना भला कौन कर सकता है/ अच्छा हो कि हम इस संकट के बारे में और ठोस जानकारी जुटाएं और इससे निपटने के कार्यभार को जल्द से जल्द अपने नीतिगत ढांचे में शामिल करें।