न्यायिक नियुक्तियों की आदर्श व्यवस्था कितनी दूर?

न्यायिक नियुक्तियों की आदर्श व्यवस्था कितनी दूर?

 
यह संविधान के एक साधारण ज्ञान का विषय है कि संसद को कानून बनाने का अधिकार है लेकिन इस कानून की संवैधानिकता तय करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को है। फिर जब सर्वोच्च न्यायालय ने 99वें संविधान संशोधन विधेयक को असंवैधानिक और निरस्त घोषित कर दिया, तो ऐसा क्या खास हो गया कि हंगामा बरपा गया। केंद्रीय विधि मंत्री डी.वी. सदानंद गौड़ा ने कहा, ‘‘सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हम हैरान हैं’’। अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने इस फैसले को ‘त्रुटिपूर्ण’ करार दिया। केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपनी फेसबुक पोस्ट में इसे ‘‘अनिर्वाचितों की तानाशाही’’ कहा।
दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी संविधान संशोधन अधिनियमों के विरुद्ध फैसले दिए हैं लेकिन इस बार की खास बात यह है कि पहली बार किसी संशोधन अधिनियम का पूर्णरूपेण निरस्तीकरण किया गया है। इसके पहले प्रत्येक बार निरस्तीकरण आंशिक रहा है। एक विशेष बात यह भी है कि यह फैसला सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी ही प्रधानता की स्थापना हेतु दिया है।

  • वहां से यहां तक
    सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्तियां क्रमशः भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 एवं 217 के अंतर्गत की जाती हैं। अनुच्छेद 124 के तहत राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश की नियुक्ति सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के ऐसे न्यायाधीशों के परामर्श से करता है जिन्हें वह इस कार्य के लिए आवश्यक समझता है। संविधान का यह अनुच्छेद मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश (CJI) से परामर्श लेना अनिवार्य बनाता है। इसी प्रकार अनुच्छेद 217 किसी उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, उस राज्य के राज्यपाल एवं उस राज्य उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लेने को अनिवार्य बनाता है।
    संविधान में कहीं भी ‘परामर्श’ शब्द की विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत नहीं है अर्थात यह नहीं बताया गया है कि न्यायाधीशों के परामर्श को राष्ट्रपति द्वारा मानना अनिवार्य है या ऐच्छिक। इसी कारण यह भी स्पष्ट नहीं रहा है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में किसे प्रधानता प्राप्त होगी राष्ट्रपति को या न्यायाधीशों को।
    अनुच्छेद 124 एवं 217 को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों, निर्वचनों एवं घोषणाओं द्वारा ज्यादा समझा गया है। मुख्य रूप से तीन संविधान पीठों (Three Constitution Benches) द्वारा दिए गए निर्णयों में इन अनुच्छेदों को व्याख्यायित किया गया है।
    प्रथम निर्णय सात न्यायाधीशों की पीठ ने 4:3 के बहुमत से वर्ष 1981 में दिया है जिसे ‘प्रथम न्यायाधीश वाद’ (First Judges Case) के नाम से जाना जाता है। संविधान पीठ ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 124 एवं 217 में परामर्श (Consultation) का अर्थ भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) की सहमति (Concurrance) नहीं है। यदि राष्ट्रपति (जो केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करता है) और मुख्य न्यायाधीश (CJI) के बीच मतवैभिन्न होता है, तो राष्ट्रपति की राय अभिभावी (Prevail) होगी।
    दूसरा निर्णय नौ न्यायाधीशों की पीठ ने 7:2 के बहुमत से वर्ष 1993 में दिया जिसे ‘द्वितीय न्यायाधीश वाद’ (Second Judges Case) के नाम से जाना जाता है। इसमें 1981 में प्रथम न्यायाधीश वाद के निर्णय को उलट दिया गया। निर्णय में परामर्श का अर्थ ‘सहमति’ से लगाए जाने तथा मुख्य न्यायाधीश की राय की प्रधानता की बात कही गई। इसी निर्णय के आधार पर न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए ‘कोलेजियम प्रणाली’ (Collegium System) अस्तित्व में आई। इसके द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश एवं 2 अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीशों की राय से सरकार को अवगत करा दिए जाने की व्यवस्था थी जो बाध्यकारी थी। अपवादात्मक मामले (Exceptional Cases) में सरकार अनुशंसित नियुक्ति को मजबूत एवं ठोस तर्क प्रदान करके अस्वीकार कर सकती थी किंतु यह भी कहा गया कि यदि अनुशंसा करने वाले न्यायाधीश एकमत (Unanimously) से इन तर्कों को नकार देते हैं और उसी नियुक्ति की पुनः अनुशंसा करते हैं, तो सरकार यह नियुक्ति करने के लिए बाध्य होगी।
    तीसरा निर्णय 1998 में ‘तृतीय न्यायाधीश वाद’ (Third Judges Case) दिया गया। नौ न्यायाधीशों की पीठ ने यह निर्णय राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत वर्ष 1993 के निर्णय पर मांगे गए स्पष्टीकरण के प्रत्युत्तर में दिया। इसमें पीठ ने द्वितीय न्यायाधीश वाद में दिए गए निर्णय को ही दोहरा दिया अर्थात कोलेजियम प्रणाली जारी रखने पर मुहर लगा दी। इसी निर्णय में कोलेजियम के आकार को विस्तार दिया गया। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को शामिल किया गया। इसी निर्णय में यह कहा गया कि उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, संबंधित उच्च न्यायालय के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों या स्थानांतरण के आधार पर उस न्यायालय में रह चुके मुख्य न्यायाधीश या अन्य न्यायाधीशों से परामर्श करेंगे।
    तीसरे निर्णय में यह भी कहा गया कि प्रथम दो निर्णयों में वर्णित परामर्श प्रक्रिया के मानकों एवं आवश्यकताओं का अनुपालन किए बिना मुख्य न्यायाधीश द्वारा दी गई अनुशंसाओं को मानना केंद्रीय सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है।
    कोलेजियम प्रणाली ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में पूरी तरह न्यायपालिका का वर्चस्व स्थापित करा दिया। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति तो सर्वोच्च न्यायालय के 5 वरिष्ठतम न्यायाधीशों (मुख्य न्यायाधीश + 4 वरिष्ठतम न्यायाधीश) की राय पर ही आधारित बनाई गई। इन नियुक्तियों को लेकर समय-समय पर कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के बीच मतभेद की स्थिति भी उत्पन्न होती रही है। ऐसा नहीं है कि कार्यपालिका ने कोलेजियम प्रणाली को प्रारंभ से ही स्वीकार कर लिया और इसमें बदलाव हेतु कोई प्रयास नहीं किए। वर्ष 1990 से ही इस दिशा में प्रयास जारी हैं। वर्ष 1990 में ‘राष्ट्रीय न्यायिक आयोग’ (National Judicial Commis-sion) की स्थापना हेतु 67वां संविधान संशोधन विधेयक लोक सभा में प्रस्तावित था किंतु वर्ष 1991 में 9वीं लोक सभा के विघटन के कारण विधेयक कालातीत हो गया। संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा हेतु गठित राष्ट्रीय आयोग के अध्यक्ष एम.एन. वेंकटचेलैय्या ने वर्ष 2002 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति हेतु ‘राष्ट्रीय न्यायिक आयोग’ के गठन की सिफारिश की थी। यह 5 सदस्यीय न्यायिक आयोग सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री तथा एक प्रतिष्ठित व्यक्ति (मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा नामित) से गठित होना था। वर्ष 2003 में 9 मई को वेंकटचेलैय्या आयोग की सिफारिशों के अनुरूप राष्ट्रीय न्यायिक आयोग गठित करने के लिए संसद में 98वां संविधान संशोधन विधेयक पुरःस्थापित किया गया। यह विधेयक भी मई, 2004 में 13वीं लोक सभा विघटित हो जाने के कारण कालातीत (Lapsed) हो गया। इसके बाद संप्रग सरकार ने वर्ष 2013 में ‘‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’’ (National Judicial Appoint-ments Commission) के गठन हेतु 120वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया। विधेयक राज्य सभा से पारित हो गया किंतु 2014 में आम चुनाव से पूर्व लोक सभा विघटित होने के कारण कालातीत हो गया।
    वर्ष 2014 के आम चुनावों के बाद गठित मोदी सरकार ने 13 अगस्त, 2014 को 121वां संविधान संशोधन विधेयक, 2014 एवं राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक लोक सभा में पारित कराया। दोनों विधेयक 14 अगस्त को राज्य सभा में पारित हुए तथा 31 दिसंबर, 2014 को इन पर राष्ट्रपति की अभिस्वीकृति भी प्राप्त हो गई। 121वां संविधान संशोधन विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त कर 99वां संविधान संशोधन अधिनियम बना। 99वां संविधान संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम 13 अप्रैल, 2015 को भारत सरकार के राजपत्र (Gazette) में अधिसूचित (Notified) होकर लागू हो गए।
    राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग में 6 सदस्यों का प्रावधान था। जो इस प्रकार हैं-
  • सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
  • सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश
  • केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री
  • प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता एवं सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से गठित 3 सदस्यीय समिति द्वारा चयनित दो प्रतिष्ठित व्यक्ति।
    दोनों ही अधिनियमों को न्यायिक स्वतंत्रता पर हमला और संविधान की आधारभूत संरचना के साथ खिलवाड़ के रूप में देखा गया इन अधिनियमों के विरुद्ध अधिसंख्य याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गईं।
  • सद्यः फैसला
    द सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन ने 21 अगस्त, 2014 को ही सरकार द्वारा पारित विधेयकों की वैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका दायर की थी किंतु तब इसे समय पूर्व (Premature) बताकर उचित समय पर आने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा तथा वाद को निस्तारित कर दिया।
    16 अप्रैल, 2015 को सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर की अध्यक्षता में 5 सदस्यीय पीठ का गठन 99वें संशोधन अधिनियम एवं राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग पर सुनवाई के लिए किया। पीठ के अन्य 4 सदस्य थे-न्यायमूर्ति मदन भीमराव लोकुर, न्यायमूर्ति जस्ती चेलामेश्वर, न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ, न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल। पीठ को केंद्र सरकार की इस मांग पर भी सुनवाई करनी थी कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के मामले को 9 या 11 न्यायाधीशों की बड़ी पीठ को संदर्भित कर दिया जाए।
    16 अक्टूबर, 2015 को विद्वत न्यायाधीशों ने 4:1 के बहुमत से 1042 पृष्ठों में अपना फैसला सुना दिया। फैसले के अनुसार-
    1. मामले को बड़ी पीठ के सुपुर्द करने की केंद्र सरकार की प्रार्थना अस्वीकार कर दी गई।
    2. संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 तथा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 असंवैधानिक और शून्य घोषित किया गया।
    3. न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया हेतु पूर्ववर्ती कोलेजियम व्यवस्था को पुनः जारी रखने की घोषणा की गई।
    4. कोलेजियम व्यवस्था के बेहतर कार्यान्वयन हेतु सुझाव आमंत्रित किए गए।
  • तर्क-वितर्क
    मामले की बहस में 14 याचिकाकर्ताओं के 26 वकीलों ने, 8 प्रतिवादियों (केंद्र एवं 7 राज्य सरकारें) के वकीलों की एक बड़ी फौज ने प्रतिभाग किया। बहस के दौरान केंद्र सरकार का कहना था कि न्यायालय को राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के अनुभव को भी करके देखना चाहिए ठीक उसी तरह जैसे उसने प्रथम 43 वर्ष बिना कोलेजियम की व्यवस्था के तथा उसके बाद के 22 वर्ष कोलेजियम का अनुभव किया। केंद्र और राज्य सरकार के वकीलों ने कहा कि संविधान न्यायाधीशों की नियुक्ति में प्रधान न्यायाधीश को प्रधानता नहीं देता और सर्वोच्च न्यायालय ने इस ताकत को बेज़ा अख्तियार कर लिया है।
  • अधिनियमों के विरुद्ध याचिकाकर्ताओं के मुख्य तर्क निम्न थे-
  • विधेयकों का विरोध करने वाले इकलौते सांसद एवं न्यायविद् राम जेठमलानी के अनुसार, दोनों ही अधिनियम संविधान के बुनियादी स्वरूप से खिलवाड़ कर बैठते।
  • ये अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 50 के उल्लेख ‘‘कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण’’ के विरोध में हैं।
  • कोलेजियम व्यवस्था में न्यायपालिका की प्रधानता थी किंतु राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के 6 सदस्यों में से आधे अर्थात मात्र 3 न्यायाधीश हैं। शेष 3 में विधि मंत्री एवं 2 प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल हैं। केंद्र सरकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि 2 चयनित प्रतिष्ठित व्यक्ति कोई जरूरी नहीं है कि विधि क्षेत्र से हों।
  • दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों को चुनने के लिए बनी समिति में न्यायपालिका से मुख्य न्यायाधीश हैं जबकि प्रधानमंत्री एवं विपक्ष के नेता के साथ दो सदस्य राजनीति के क्षेत्र से हैं। अतः राजनीतिक कार्यपालिकीय क्षेत्र अपनी पसंद के दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों का चयन करेगा जिससे न्यायाधीशों की नियुक्तियों में न्यायपालिका का वर्चस्व कम होगा।
  • विवाद का सबसे बड़ा मुद्दा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम की धारा 6(6) जो आयोग के 6 सदस्यों में से किन्हीं 2 सदस्यों को अन्य लोगों की अनुशंसाओं को निरस्त करने का अधिकार देती है।
  • आशंका है कि 2 प्रतिष्ठित व्यक्ति जिनके चुनने में मुख्य न्यायाधीश अल्पमत की स्थिति में हैं राजनीति वर्ग का पक्ष ले सकते हैं और तीन न्यायपालिकीय सदस्यों द्वारा अनुशंसित नियुक्तियों को रोक सकते हैं।
  • संशोधन अधिनियम की धारा 5(1) भी आपत्तिजनक है। इस धारा के अनुसार, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के पद पर नियुक्ति की तभी अनुशंसा करेगा जब आयोग उन्हें इस पद के लिए सक्षम (Fit) समझेगा। सक्षमता (Fitness) की कोई परिभाषा अधिनियम में नहीं बताई गई है।
  • पूर्व प्रधान न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा के अनुसार, विधि मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों का आयोग में समावेश बाकी चार के फैसले को वीटो करने का उन्हें अधिकार दे देता। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करता।
    न्यायाधीशों ने कानूनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा कि नियुक्ति प्रक्रिया में न्यायपालिका की प्रधानता न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अनिवार्य अंग है जो कि संविधान का आधारभूत तत्त्व है और संसद द्वारा संशोधन किए जाने के अधिकार से परे है।
    न्यायमूर्ति जे. चेलामेश्वर ने बहुमत से भिन्न निर्णय देते हुए दोनों अधिनियमों की वैधानिकता पर मुहर लगाई तथा कहा कि ये न्यायिक सुधार की दिशा में एक बेहतर कदम हैं। अपने निर्णय में उन्होंने अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन आदि देशों मंफ प्रचलित व्यवस्थाओं का उल्लेख किया जहां न्यायाधीशों की नियुक्तियों में कार्यपालिका एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रखती है। उन्होंने न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भागीदारी से निष्पक्षता के नष्ट होने के तर्क को अस्वीकार किया।
    सभी न्यायाधीशों ने एकमत से कोलेजियम व्यवस्था की कमियों को अवश्य ही स्वीकार किया और इसे अधिक बेहतर बनाने के लिए सुझाव आमंत्रित किया है। 3 एवं 5 नवंबर को पीठ ने इस पर सुनवाई भी की है। न्यायालय ने वर्तमान नियुक्ति प्रक्रिया अर्थात कोलेजियम प्रणाली में सुधार की आवश्यकता स्वीकार करते हुए सरकार, विधि विशेषज्ञों एवं आम लोगों से सुझाव आमंत्रित किया है जो निश्चित ही स्वागत योग्य है और संभवतः इसी से न्यायाधीशों की नियुक्तियों की एक आदर्श व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। फिलहाल वर्तमान स्थिति यह है कि दोनों अधिनियम निरस्त हैं, कोलेजियम व्यवस्था पुनः लागू जरूर है किंतु इसके माध्यम से नियुक्तियां तब तक नहीं की जाएंगी जब तक कि इसमें सुधार नहीं कर लिया जाता है। देखना यह है कि न्यायिक नियुक्तियों की आदर्श व्यवस्था अभी कितनी दूर है?